भोपाल। अगर आप काल या सर्प दोष से परेशान हैं, तो केवल एक जगह है जो इस तरह के हर दोष के मुक्ति दिला सकती है, वह है नागेश्वर ज्योतिर्लिंग। मान्यता है कि ये सर्पों के देवता भगवान भोलेनाथ का एक खास ज्योतिर्लिंग है, जो बिल में से भगवान के प्रकट होने पर बना है। इस ज्योतिर्लिंग से जुड़ी कथा में दारुकावन में कई प्रकार की औषधियों के पाए जाने का भी जिक्र है। ये वही वन है जिसमें महादेव का ये ज्योतिर्लिंग स्थापित है। तो चलिए आज आपको 12 दिन 12 ज्योतिर्लिंग की इस शृंखला में महादेव के दसवें ज्योतिर्लिंग से परिचित कराया जाए। नागेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने आए लोग यहां चांदी से बने सर्प दान किया करते हैं। साथ ही किसी भी प्रकरा के दोष से छुटकारा पाने के लिए भी यहां अनुष्ठान किए जाते हैं। द्वारिका के करीब होने के कारण यहां के लोग इसे कृष्ण के भी जोड़ कर देखा करते हैं। इससे जुड़ी वैसे तो कुछ ही कथाएं प्रचलित हैं, लेकिन ये सभी कथाएँ एक जैसी ही हैं, हालांकि सभी कथाओं में अलग-अलग प्रकार से इस मंदिर का निर्माण बताया जाता है। तो चलिए आपको वह कथा बताई जाए जिसे अधिक जाना जाता है, साथ ही इस ज्योतिर्लिंग की सभी खासियतों और मान्यताओं से भी आपको अवगत कराया जाए।
कथा जो भक्ति का करती है बखान
नागेश्वर ज्योतिर्लिंग गुजरात के गोमती द्वारिका के बीच दारुकावन में स्थापित है। यहां दूर-दूर से लोग आकर चांदी से बने सर्प समर्पित करते हैं। इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना से जुड़ी जो कथा प्रसिद्ध है वह कई प्रकार से सुनाई जाती है। कुछ कथाओं में कहा जाता है कि ये ज्योतिर्लिंग जिस वन में है उसमें राक्षसों का जाना मना था, तो वहीं कुछ कथाओं में कहा गया है कि ये वन एक राक्षसी जिसका नाम दारुका था उसके आधीन था। कुछ कथाओं में इस वन में जाने के लिए दारुका ने माता पार्वती से वरदान मांगा तो कुछ में दारुका इस वन को अपने साथ ही लेकर चलती थी। अब इन कथाओं में सत्य क्या है इस बारे में कहा जाना मुश्किल है, लेकिन हम आपको खास कथा के बारे में बताने जा रहे हैं। कहा जाता है कि एक बार एक सुप्रिय नामक धर्मात्मा था। वह प्रतिदिन भोलेनाथ की पूजा-आर्चना करता था। भोलेनाथ पर उसकी आस्था अपार थी। इसी समय में एक दारुक नामक राक्षस भी रहा करत था। इस राक्षस को धार्मिक कार्य पसंद नहीं थे। इस कारण ये काफी विध्वंश किया करता था। इसके प्रकोप से सभी लोग कांपा करते थे। लेकिन सुप्रिय इससे भयभीत न होकर अपने भगवान शिव की आराधना में लगा रहता था। एक दिन सुप्रिय नौका में सवार होकर कहीं जा रहा था। राक्षस दारुक को इस बात का पता चला तो वह इस नौका पर आक्रमण करने चल दिया। उसने सभी लोगों को बंधक बना लिया और लाकर अपने कारावास में डाल दिया।
कारावास में होने के बाद भी सुप्रिय का भगवान शिव से ज़रा भी अलगाव नहीं हुआ, न ही इसकी भक्ति में किसी प्रकार की कमी आई। सुप्रिय कारावास में भी महादेव की आराधना में तल्लीन रहने लगा। इतना ही नहीं उसने बाकी सारे बंदियों में भी भोलेनाथ के प्रति आस्था का बीज डाल दिया था। अब वे सभी भोलेनाथ की पूजा किया करते थे। एक दिन कारावास के सैनिकों ने इस बात का जानकारी राक्षस दारुक को दे दी। दारुक गुस्सा से आगबबूला होकर सुप्रिय की साधना भंग करने चल दिया। उसने कारावास में जाकर सुप्रिय पर गुस्सा दिखाना शुरू कर दिया। वह उसे तेज़ आवाज में बोला, अरे धूर्त तू आंखें बंद करके किस शड्यंत्र को गढ़ रहा है। इस बात से सुप्रिय को कोई फर्क नहीं पड़ा वह इसी तरह अपने महादेव की आराधना में लगा रहा। उसे भरोसा था कि शिव उसे कुछ नहीं होने देंगे। राक्षस को सुमित्र के इस व्यवहार से और अधिक क्रोध आने लगा। अपने इस क्रोध के कारण ही उसने सुमित्र के साथ सभी को मार देने का आदेश दे दिया। अपने भक्त की इस अपार भक्ति को देखकर भोलेनाथ प्रसन्न हुए और वहीं कारावास में एक बिल से प्रकट हुए। उन्होंने पशुपताश्त्र से उस रक्षस और दुष्ट सेनिकों का वध कर दिया। इसके बाद वे यहीं नागेश्वर के रूप में विराजित हो गए। सुमित्र ने इनकी पूजा की तभी से ये यहीं पर विराजित हैं। इस कथा के बारे में यह भी कहा जात है कि महादेव ने सुमित्र को ही पशुपताश्त्र दिया था। तब सुमित्र ने सभी का संहार किया था, इसके बाद भोलेनाथ के ही साथ शिवधाम को चला गया था।
पांडवों से जुड़ा मंदिर निर्माण
इस मंदिर के निर्माण से पांडवों के वनवास को जोड़ा जाता है। कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण पांडवों ने कराया था। किवदंति के अनुसार जब पांडवों को वनवास दिया गया था, तब जंगलों में भटकते हुए वे इस दारुकावन में पहुंचे थे। उनके पास एक गाय भी थी। इस गाय के एक कृत्य के कारण भीम परेशान होने लगे थे। रोज ये गाय अपने सारा दूध फेंक आती थी। एक दिन भीम ने इस गाय का पीछा किया। उन्होंने देखा कि ये गाय एक चबूतर पर अपना सारा दूध गिरा दे रह है। भीम ने अपनी गदा लेकर उस चबूतरे पर चारों ओर से मारी। उनके द्वारा ऐसा किए जाने से ये चबूतरा टूट गया। भीम ने जब अंदर देखा तो उन्हें ये शिवलिंग दिखाई दिया। इस बारा में उन्होंने कृष्ण को बताया, तब कृष्ण द्वारा इस ज्योतिर्लिंग की कहानी पांडवों को सुनाई गई। जिसमें दारुका, समित्र और सभी प्रकार के पात्रों का जिक्र था। नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की महिमा सुनने के बाद सभी पांडवों ने यहां एकल शिला से मंदिर का निर्माण किया और पूजा-अर्चना की अभिषेक भी किया।
वन के बारे में कथा
इन्ही सब कथाओं में एक हिस्सा इस दारुकावन के बारे में भी है, लेकिन इसके बारे मे भी दो तरह की कहानियां है। इनमें से कौनसी बात सही है इस बारे में कहा नहीं जा सकता। इस वन को कथाओं में काफी खास माना जाता है। इस वन के बारे में ये कहा जाता है कि इस वन को संभालने का दायित्व दारुका नामक राक्षसी को पार्वती माता ने दिया था। वह इससे इतना लगाव रखती थी कि हमेशा इसे अपने साथ ही लेकर जाती थी। इसी कारण इसे दारुकावन कहा जाता है। बाद में दारुक नामक राक्षस के वध के बाद भी दारुका ने माता पार्वती से इस वन में विचरण किए जाने का वरदान मांगा था। तब माता पार्वती ने इसे वरदान दिया और वे भी यहां स्थापित हो गई। माता पार्वती को यहां नागेश्वरी माता के नाम से जाना जाता है। हालांकि ये दारुकावन की कथा के कारण प्रमुख कथा पर भी सवाल खड़े होने लगते हैं। क्योंकि इस कथा के मुताबिक दारुकावन को राक्षसी दारुका समुद्र में ले गई थी, ताकि राक्षसों की जान बचाई जा सके। इसी वन के बारे में एक और कथा है जो कहती है कि इस वन में किसी भी राक्षस का जाना मना था। इस वन में काफी ज्यादा औषधियां थी। जिन्हें उपयोग करने की अनुमति मांगने के लिए दारुका ने माता पार्वती को प्रसन्न किया था। फिर इस वन में जाकर उत्पात मचा दिया था। इस कथा के मुताबिक वध ही इस राक्षसी का हुआ था। तो ये कथाएं थोड़ी पेचीदा हैं। इस कारण इसमें सत्यता की सटीकता नहीं है।
क्या है मान्यता
नाम से ही पता चलता है कि ये नागेश्वर हैं यानि नागों के देवता। इस कारण इस मंदिर को खास तौर से काल और सर्प दोष के निवारण के लिए जाना जाता है। अगर किसी की कुंडली में काल या सर्प दोष है तो यहां चांदी के नाग-नागिन का जोड़ा अर्पित करने से इन सारी परेशानियों से मुक्ति मिल जाती है। यहां और भी कई प्रकार के दोषों का निवारण किया जाता है। इसके लिए अलग-अलग प्रकार के अनुष्ठान कराए जाते हैं। मान्यता ये भी है कि इस मंदिर में दर्शन मात्र कर लेने से व्यक्ति को सभी प्रकार के अशुभ कार्यों से आधी निजात मिल ही जाती है।
मंदिर की संरचना
मंदिर की संरचना के बारे में यदि बात की जए तो इस मंदिर का निर्माण पांडवों द्वारा कराया ही बताया जाता है। मुगल काल में इस मंदिर को काफी क्षति हुई थी। जिसका जीर्णोंद्धार अहिल्याबाई द्वारा कराया गया। उन्होंने ही इस शिखर का निर्माण कराया था। इसके बाद मराठा शासकों द्वारा इस मंदिर को विकसित किया गया है। इस मंदिर में स्थापित ज्योतिर्लिंग सभामंडप के नीचे है, जो मध्यम बड़े आकार का ज्योतिर्लिंग है। इस लिंग के ऊपर चांदी का आवरण है, साथ ही चांदी के सर्प भी इस शिवलिंग से लिपटे हैं। इसी मंदिर में शिवलिंग के पीछे माता पार्वती की सुंदर प्रतिमा है। जिन्हें नागेश्वरी के नाम से जाना जाता है। इस मंदिर के प्रांगण में एक शिवजी की विशाल मूर्ति भी आकर्षण का केंद्र है, हालांकि ये प्रतिमा प्राचीन नहीं ये हाल ही में बनाई गई है।
महाशिवरात्री के 5 दिन बाद लगता है मेला
इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन के लिए हर साल कई लोग आया करते हैं। जिनमें से कई लोग तो अपनी कुंडली के कारण ही यहां आया करते हैं, लेकिन इसके अलावा भी ये मंदिर अपनी शिवरात्री के लिए खास माना जाता है। यहां का रथोत्सव काफी रंगारंग और भव्य होता है। महाशिवरात्री के दिन इस मंदिर में पूजा की जाती है। इसके पांच दिन बाद यहां मेला लगा करता है। इसी मेले में रथोत्सव मनाया जाता है, जिसमें काफी बड़ी संख्या में लोग आते हैं।