भोपाल। महादेव, आदि से अंत तक, ये रहे हैं और रहेंगे। इस बात का जिक्र हिन्दू पुराणों और कई ग्रंथों में मिलता ही है, लेकिन धरती पर इसका एक प्रमाण है, जिसे केदारनाथ ज्योतिर्लिंग के नाम से जाना जाता है। महाशिवरात्री के इस पखवाड़े में हम आपको भगवान शिव के प्रमाण, सभी ज्योतिर्लिंगों के बारे में बता रहे हैं। आज पांचवें दिन हम पांचवें ज्यतिर्लिंग के रूप में प्रसिद्द केदारनाथ के बारे में आपको बताने जा रहे हैं। इस ज्योतिर्लिंग की जितनी महानता है, उतना ही इस मंदिर का निर्माण प्रसिद्धि प्राप्त किए हुए है। इस मंदिर ने 2013 में सभी लगों को आश्चर्यचकित किया ही है। ये मंदिर वह प्रमाण है जो हिन्दु ऋषि-मुनियों के ज्ञान की कसौटी है। एक तरह से कहा जा सकता है कि ये वास्तुकला की पराकाष्टा है, इससे बेहतर कुछ हो ही नहीं सकता। जो हिम युग को में भी टिका रहा और आज का उन्नत विज्ञान भी इस मंदिर की वास्तुकला के कारण आश्चर्यचकित है। हालांकि पुराणों के मुताबिक इसका निर्माण पांडवों द्वारा कराया गया है। तो चलिए आपको इस मंदिर के बारे में बताते हैं। कैसे और किसके द्वार इस मंदिर की स्थापना की गई, किस तरह ये मंदिर विकट परिस्थितियों में भी टिका रहा। 2013 की सुनामी में सब बह गया पर इस मंदिर की जटिलता को कोई नुकसान नहीं हुआ। आज के इस लेख में हम आपको इस मंदिर से जुड़ी इसी प्रकार की सभी खासियतों के बारे में बताने जा रहे हैं।
पाप से नुक्ति पाने पांडवों ने किया शिव का पीछा
केदारनाथ मंदिर हिमालय की गोद में स्थापित है। ये भारत के उत्तराखंड में रुद्रप्रयाग जिले में सथित है। इस मंदिर पर यहां की जलवायु का खासा असर होता है। इस कारण इस मंदिर को दर्षन के लिए केवल अप्रैल से नवंबर माह में ही खोला जाता है। बताया जाता है कि इस मंदिर का जीर्णोद्धार आदि शंकराचार्य द्वारा कराया गया है। केदारनाथ के बारे में एक कथा प्रचलित है। जो इसके निर्माण को पांडवों से जोड़ती है। कथा के अनुसार महाभारत के समय युद्ध में पांडवों पर भ्रातृवध का पाप लगा था। इस पाप से मुक्ति पाने के लिए वे शिवजी की शरण में जाने लगे। लेकिन भाइयों की हत्या जैसे इस घोर पाप के लिए शिवजी पांडवों से रूठे हुए थे। इस कारण वे अपना स्थान बदलते रहे। क्योकि शिवजी पांडवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे। पांडव भी अपने इस पाप से मुक्ति पाने के लिए लगातार शिवजी का पीछा ही करते रहे। पांडव भगवान शिव के दर्शन के लिए काशी गए, लेकिन वे वहां नहीं मिले। पांडव उनकी खोज में लगातार लगे रहे और हिमालय भी जा पहुंचे। भगवान शिव पांडवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे तो वे वहा से भी अंतर्ध्यान हो गए। इसके बाद भगवान शिव केदार में बस गए।
पांडव भगवान के पीछे केदर भी पहुंच गए। इस बार शिवजी ने केदार में मवेशियों के झुंड में बैल बनकर जाना चुना। पांडवों को इस बारे में बता चल गया था। तो पांडव भी अपनी जिद पर अड़े रहे वहीं रुके रहे। इसी बीच भीम को एक तरकीब सूझी और उन्होंने अपना विशाल रूप ले लिया। अब जो सामान्य मवेशी थे वे तो भीम के पैरों के नीचे से निकल गए लेकिन शिवजी ने ऐसा नहीं किया क्योंकि ये शिवजी के लिए अपमान की बात हो जाती। हर बार की तरह इस बार भी शिवजी अपने इस बैल रूप में ही अंतर्ध्यान होने के लिए धरती में समाने लगे। ऐसा होता देख भीम ने तुरंत बैल रूप में भगवान शिव को धरती में समाते देख उनका कूबड़ पकड़ लिया और रुकने की विनती करने लगे। पांडवों की इस लगन और निष्ठा को देखकर महादेव प्रसन्न हुए और पांडवों को दर्शन देकर उन्हें पापों से मुक्त कर दिया। इसके बाद भोलनाथ यहीं पर बैल के कूबड़नुमा ज्योतिर्लंग के रूप में विराजमान हो गए। यही कथा पंच केदार की स्थापना का भी कारण बताई जाती है। इसमें केदारनाथ में कूबड़, भुजाएं तुंगनाथ, मुख रुद्रनाथ, नाभि मध्यमहेश्वर और बाल कल्पेश्वर में स्थापित हुए हैं। इन सभी स्थानों का मिला-जुला रूप पंचकेदार के नाम से जाना जाता है।
बिना केदारनाथ नहीं की जाती बद्रीनाथ की यात्रा
भगवान शिव के इस ज्योतिर्लिंग के बारे में कई मान्यताएं हैं। हालांकि इनमें से एक पापों से तारना है ही, क्योंकि इन्होंने पांडवों को पाप मुक्त किया था। इसके अवाला भी ये ज्योतिर्लिंग कई प्रकार के धार्मिक महत्व रखता है। सनातन धर्म के अनुसार इस ज्यतिर्लिंग को ऊर्जा का स्त्रोत माना गया है। इस स्थान पर अपार ऊर्जा है। यहां पांच नदियों का संगम है जो मंदाकिनी, मधुगंगा, क्षीरगंगा, सरस्वती और स्वर्णगौरी हैं। आज के परिवेश में इनमें से कुछ नदियों का अस्तित्व खत्म होता जा रहा है, लेकिन ये एक पांच नदियों का संगम है। केदारनाथ की ओर आने वाले रास्ते में गौरीकुड है। इसकी भी खास मान्यता है, स्नान करने का विधान है। मंदिर से पहले भैरव बाबा का मंदिर है जिसमें दर्शन करना अनिवार्य होता है। केदारनाथ धाम के पट खोले जाने या बंद किए जाने से पहले भैरव बाबा की पूजा की जाती है। माना जाता है कि जब केदारनाथ के पट बंद होते हैं तो यहां भैरव बाबा इस मंदिर की रक्षा करते हैं।
केदारनाथ के बारे में एक और मत है, वह ये है कि अगर कोई व्यक्ति बद्रीनाथ यात्रा पर जा रहा है, तो उसे पहले केदारनाथ धाम में ही आना होगा। ऐसा न किए जाने से उस व्यक्ति को बद्रीनाथ धाम की यात्रा किए जाने का फल प्राप्त नहीं होगा। आपको बताते चलें कि इस मंदिर के पट ज्योतिष पंचांग के मुताबिक खोले जाते हैं। इनके खोले जाने की तिथी अक्षय तृतीया के दिन घोषित होती है।
तीन पर्वत, पांच नदियां, ऐसा है ये मंदिर
चलिए अब केदारनाथ मंदिर की वास्तुकला के बारे में जानते हैं। किस तरह ये मंदिर आदिकाल से अटल है। हिम युग का भी सामना किया और आज भी 6 महीनों को लिए हिम से ढका होता है। केदारनाथ के बारे में कहा जाता है कि ये मंदिर आठवीं शताब्दी का है। इसके कई प्रकार के प्रमाण भी मिलते हैं। इस दिर पर कई प्रकार के वैज्ञानिक प्रयोग किए गए हैं। जिससे इसकी वास्तविकता के बारे में जाना जा सके। इस मंदिर की स्थिति के बारे में बात करें तो इस मंदिर के एक तरफ केदारनाथ नामक पहाड़ी है जिसकी ऊंचाई समुद्र तल से 22 हजार फीट ऊंची बताई जाती है। दूसरी ओर कराचकुंड नामक पहाड़ी है जो 21 हजार छः सौ फीट ऊंची है। इसके तीसरी तरफ भी एक पहाड़ी है जिसका नाम भरतकुंड है।
यहां पांच नदियां बहती हैं, इनका संगम है, जो मंदाकिनी, मधुगंगा, क्षीरगंगा, सरस्वती और स्वर्णगौरी हैं। कहा जाता है कि ये मंदाकिनी नदी का एकमात्र जलसंग्रहण क्षेत्र है। इस मंदिर के निरमाण को खास इस कारण माना जाता है क्योंकि इस मंदिर के पास बारिश के समय पानी का तेज प्रवाह होता है और ठंडी के दिनों में बर्फ की चादर में ठक जाता है। फिर कैसे इस विकट परिस्थिति में इस मंदिर का निर्माण किया गया है। जिस स्थान पर गाड़ी के द्वारा लोग नहीं जा पाते उस दुर्गम स्थान पर इतनी बड़ी शिलाएं कैसे रखी गई।
आपको बताते चलें इस मंदिर के निर्माण में जिस पत्थर का उपयोग किया गया है, वह पत्थर इस जगह नहीं पाया जाता। इसे दूसरी जगह से यहां लाया गया है। इस पत्थर के बारे मे कहा जाता है कि ये बहुत ही मजबूत पत्थर है। साथ ही मौसम का प्रभाव भी इस पत्थर पर देखने को नहीं मिलता है। ये मंदिर 400 साल तक बर्फ में ढ़का रहा था, लेकिन ये इस पत्थर की खासियत है कि इतने सालों के बाद भी इस पत्थर ने अपना गुण नहीं खोया है। आपको बता दें इस मंदिर में किसी भी प्रकार की सीमेंट या कुछ ऐसा सामान उपयोग नहीं किया गया है। इसमें एशलर तकनीक से काफी सटीक तरह से भित्ती(दीवार) निर्माण किया गया है। इस मंदिर का अस्तित्व 12 सौ साल से भी पहले का बताया जाता है।
कैसे कर लिया सुनामी का सामना
यूं तो ये मंदिर हिम और कई प्रकार की प्राकृतिक घटनाओं का सामना कर चुका है, लेकिन 2013 में आई सुनामी में भी ये मंदिर अटल रहा, आखिर कैसे? इसका कारण सनातन धर्म के उन ऋषि मुनियों का ज्ञान है। इस मंदिर को इस शैली में इस स्थिति में बनाया गया है, कि इस पर किसी भी प्रकार के मौसम का उतना असर नहीं होता है। इस मंदिर को उत्तर-दक्षिण दिशा में बनाया गया है न कि पूर्व-पश्चिम में, इस कारण इस मंदिर ने इस सुनामी का सामना किया था। 2013 में जो सुनामी आई थी, उसमें सरकारी आंकड़ो के मुताबिक 5748 लोगों की जान गई थी। वहीं 4200 गांव भी तबाह हो गए थे। तब भी ये मंदिर इसी तरह अटल खड़ा रहा, और तो और बाद में जब इसमें हुए नुकसान का परीक्षण किया गया तो सामने आया कि इस मंदिर का 99 प्रतिशत हिस्सा पूरी तचरह से ठीक है। ये केवल हमारे उस समय के ऋषि-मुनियों द्वारा की गई सटीक गणना का ही असर है कि इस मंदिर पर किसी प्रकार की असर नहीं हुआ। उस काल में मंदिर निर्माण के समय सारी परिस्थितियों के बारे में गहन चिंतन कर इस मंदिर का निर्माण कराया गया था। इस मंदिर की एक और खासियत है कि इसपर मौसम का असर नहीं होता है। ये भी एक उन्नत किस्म की कारिगरी की ही नतीजा है, जो आज से 12 सौ साल पहले की गई थी।