होम
देश
दुनिया
राज्य
खेल
अध्यात्म
मनोरंजन
सेहत
जॉब अलर्ट
जरा हटके
फैशन/लाइफ स्टाइल

 

स्वास्थ्य सेवाओं की खुली पोल: ब्लड सेंटर बना कबाड़ घर, मशीनें जंग खा रहीं, ज़िंदगी से खिलवाड़ जारी!

स्वास्थ्य सेवाओं की खुली पोल: ब्लड सेंटर बना कबाड़ घर, मशीनें जंग खा रहीं, ज़िंदगी से खिलवाड़ जारी!

तुलसीराम जायसवाल //भाटापारा। भाटापारा के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में स्थित ब्लड स्टोरेज सेंटर की बदहाली ने एक बार फिर से सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की हकीकत सामने ला दी है। महीनों से बंद पड़े इस सेंटर में अब न तो कोई कामकाज हो रहा है, और न ही मरीजों को समय पर रक्त मिल पा रहा है। हालात इतने खराब हैं कि जरूरी मशीनें कोने में कबाड़ की तरह पड़ी हुई हैं और उन पर धूल की मोटी परत जमी है।

लाइसेंस की मियाद खत्म, मशीनें अनुपयोगी:

सूत्रों के अनुसार, सेंटर का लाइसेंस कई महीनों पहले ही समाप्त हो चुका है, लेकिन उसके नवीनीकरण की प्रक्रिया आज तक पूरी नहीं की जा सकी। इस लापरवाही का खामियाजा मरीजों को उठाना पड़ रहा है। हाल ही में एक आपातकालीन स्थिति में खून की जरूरत पड़ी, लेकिन ब्लड स्टोरेज सेंटर की बंद व्यवस्था ने अस्पताल स्टाफ और मरीज के परिजनों को असहाय कर दिया।

स्वास्थ्य विभाग की चुप्पी, मीडिया से दूरी:

जब मीडिया टीम ने मौके पर जाकर स्थिति जानने की कोशिश की, तो स्वास्थ्य विभाग के कर्मचारियों ने सेंटर का दरवाजा खोलने से इनकार कर दिया। साथ ही, तस्वीरें लेने की भी अनुमति नहीं दी गई। यह रवैया स्पष्ट करता है कि विभाग खुद भी इस स्थिति को लेकर असहज और लाचार है।

बीएमओ का बयान, जिम्मेदारी पूर्व कार्यकाल पर:

भाटापारा के बीएमओ डॉ. राजेन्द्र माहेश्वरी ने कहा, "मैंने वर्ष 2022 में पदभार ग्रहण किया था, तब से यह मशीन बंद है। सीजीएमएससी की टीम द्वारा जांच के दौरान मशीन को डिस्मेंटल लायक बताया गया था। नए मशीन के लिए उच्च अधिकारियों को पत्र लिखा गया है।"

स्थानीय लोगों में आक्रोश:

स्थानीय नागरिकों का कहना है कि यह ब्लड स्टोरेज सेंटर इसलिए शुरू किया गया था ताकि आपात स्थिति में मरीजों को समय पर रक्त मिल सके, लेकिन आज यह केवल बंद कमरों और जर्जर मशीनों तक सिमट कर रह गया है।

मरीजों को हो रही भारी परेशानी:

ब्लड सेंटर की निष्क्रियता के चलते मरीजों को अब निजी अस्पतालों या फिर रायपुर जैसे बड़े शहरों के ब्लड बैंकों पर निर्भर रहना पड़ता है। इससे न केवल समय और धन की बर्बादी होती है, बल्कि गंभीर मामलों में देरी जानलेवा भी साबित हो सकती है।

प्रशासन कब जागेगा?:

अब सवाल यह है कि क्या सिस्टम किसी बड़ी अनहोनी के इंतजार में है? क्या मरीजों की जान इतनी सस्ती हो गई है कि लाइसेंस नवीनीकरण जैसी बुनियादी प्रक्रिया को महीनों तक टाला जा सकता है?

अगर स्वास्थ्य विभाग और प्रशासन ने अब भी इस मुद्दे पर गंभीरता नहीं दिखाई, तो यह चुप्पी किसी दिन बहुत बड़ी कीमत मांग सकती है।


संबंधित समाचार