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चांद और मंगल ग्रह की सीमा तक पहुंचने वाले मनुष्य ने दोगलेपन की चरम सीमा को भी छू लिया : अतुल मलिकराम

चांद और मंगल ग्रह की सीमा तक पहुंचने वाले मनुष्य ने दोगलेपन की चरम सीमा को भी छू लिया : अतुल मलिकराम

भोपाल। अतुल मलिकराम एक समाजसेवी है। उन्होनें अपनी जानकारी साझा करते हुए बताया कि वैसे तो भगवान ने मनुष्य को बड़े ही सोच समझकर बनाया है या यूँ कहें कि धरती पर बाकी प्राणियों से हटकर ज्यादा ही बुद्धि और विवेक दिया है। लेकिन क्या सही मायनों में मनुष्य इस बुद्धि विवेक का इस्तेमाल करता भी है? सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल किया गया विवेक, क्या समाज और उसके खुद के लिए सही है? 

पैसा, सम्मान और शोहरत की भूख इतनी बड़ी हो जाती है कि आदमी को कुछ भान ही नहीं हो पाता और वह इस चँगुल में फँसता चला जाता है। यदि मनुष्य के पास पैसा है, तो उसे शोहरत की भूख सताने लगती है और यदि शोहरत है, तो पैसे की। यह कभी न ख़त्म होने वाली लालसा है। पैसा और शोहरत दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। इन दोनों के होते हुए भी संतुलित रहना अपने आप में एक बड़ी कला है, जो विरले ही व्यक्तियों में होती है। 

चाँद और मंगल ग्रह की सीमा तक पहुँचने वाले मनुष्य ने दोगलेपन की चरम सीमा को भी छू लिया है। आज एक ही इंसान के कई चेहरे देखने को मिलते हैं। उदाहरण के रूप में आज के नेताओं को ही देख लीजिए, बड़े-बड़े वादों के साथ उनका भाषण शुरू होता है, और सारे के सारे वादे भाषण पूरा होने के साथ ही खत्म हो जाते हैं और अंत में जनता के हाथ कुछ नहीं लगता। 

बात सिर्फ नेताओं तक आकर ही नहीं रूकती, आज हर व्यक्ति स्वार्थी और चालाक होता जा रहा है। भीतर से जानेंगे, तो पता चलेगा कि महिला दिवस पर महिलाओं के हित में भाषण देने वाला या उनके लिए अलग से कुछ महत्वपूर्ण कार्य करने वाला व्यक्ति ही सबसे पापी होता है, उसके मन में सिर्फ खोट होता है उस खोट से बचने के लिए वह ये सारे जतन करता है। महिलाओं के लिए उसका नज़रिया मन के आईने से लोग कैसे छिपा जाते हैं, समझ नहीं आता है।
 
लोग मदर्स डे और फादर्स डे मनाने लगे हैं। जिन्होंने हमें जन्म दिया और जिनकी वजह से आज हम हैं, क्या उनके लिए वर्ष का एक दिन मनाना जायज़ है? यह मेरे देश की परंपरा कतई नहीं है। कोई भी खास दिन यदि किसी एक ही दिन किसी दिवस के रूप में मनाया जाता है, तो मैं इसके खिलाफ हूँ। क्योंकि, इसमें मुझे दिखावे की बू आती है। अपने माता-पिता से ठीक प्रकार बात भी न करने वाले बच्चे मदर्स डे और फादर्स डे पर भर-भर कर स्टेटस लगाए घूमते हैं और अगले ही दिन सन्नाटा पसर जाता है सोशल मीडिया पर, जो महज़ एक ही दिन पहले माता-पिता के गुणगान गा रहा था। मन में प्यार है, तो सोशल मीडिया पर दिखाने की जरुरत ही क्या है? दुनिया को अपना प्यार दिखाने वालों से मैं सिर्फ यही कहना चाहता हूँ कि दो पल अपने माता-पिता के साथ बैठ लो, घर में बैठे उन भगवानों को पूज लो, तो पता चलेगा कि उनके लिए तुम उनकी पूरी की पूरी दुनिया हो और उन्हें तुम्हारे थोड़े-से समय के अलावा कुछ भी नहीं चाहिए। 

मेरा मानना है कि व्यक्ति जैसा भीतर से है, वैसा ही बाहर से भी रहना चाहिए, वह कहते हैं न- नो फिल्टर। वैसे तो आज ज़माना ही फिल्टर का हो गया है। बिना फिल्टर के फोटो अच्छी नहीं आती, तो इंसान कहाँ से अच्छा आएगा, क्योंकि यह कैमरे वाला फिल्टर इंसान ने अपने जीवन में भी उतार लिया है। लेकिन वह भूल गया है कि जीवन फोटो जितना क्षणिक नहीं है कि चंद लम्हों में फोटो अच्छी आ आए। बाकि, फैसला आपका है, विचार जरूर करिएगा।


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